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राजनीति की अर्थनीति…!!

tarkeshkumarojha
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राजनीति की अर्थनीति…!!

मेरे शहर में हाल में नगर निगम का चुनाव संपन्न हुआ। ग्राम प्रधानी से कुछ बड़े स्तर के इस चुनाव में पैसों का जो खुला खेल देखने को मिला, उससे मेरी आंखे चौंधिया गई। पाई – पाई का मोल भला कलम चला कर आजीविका चलाने वाले से ज्यादा अच्छी तरह कौन समझ सकता है। अब एेसे बेचारों के सामने यदि कोई लाख – करोड़ की बातें एेसे करे मानो दस – बीस रुपए की बात की जा रही हो, तो हालत बिल्कुल भूखे पेट के सामने छप्पन भोग की बखान जैसी ही होगी। मेरी भी कुछ एेसी ही हालत है।
विधानसभा और संसदीय चुनाव को मात देने वाले इस चुनाव में ताकतवर- अभिजात्य वर्ग का दखल साफ नजर आया। कहने को तो चुनाव में खर्च की अधिकतम सीमा महज 30 हजार रुपए तक तय थी। लेकिन सच्चाई यह है कि हारे हुए उम्मीदवार भी चुनाव में 20 से 25 लाख तक खर्च हो जाने की दुहाई देते हुए अब अपने जख्मों को सहलाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके दावों में अतिशयोक्ति की जरा भी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि गांव से कुछ बड़े स्तर के इस चुनाव में धन बल व जन बल का प्रभाव साफ देखा गया। बड़े – बड़े कट आउट से लेकर दर्जनों कार्यकर्ताओं के भोजन – पानी व मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए किए गए खर्च को जोड़ कर हिसाब किया जाए तो इतना खर्च स्वाभाविक ही कहा जाएगा।चुनाव बाद अब छन – छन कर आ रही खबरों पर विश्वास करें तो एक धनकुबेेर ने अपनी पत्नी की जीत सुनिश्चित करने के लिए अपने क्षेत्र में करीब दो लाख रुपए के मोबाइल फोन लोगों में बांट दिए। वहीं एक बड़े कारोबारी ने अपनी किशोर उम्र बेटी को चुनाव जितवाने के लिए तकरीबन 45 लाख रुपए खर्च कर डाले। उस कारोबारी को अपने मकसद में कामयाबी भी मिल गई। लेकिन इसका खुलासा तब हुआ जब वह जीत के अंतर से असंतुष्ट होकर कारिंदों को डांटने लगा। उसने साफ शब्दों में कहा कि क्या मैने चुनाव में 45 लाख रुपए महज इतने कम अंतर से जीत के लिए खर्च किए। सवाल उठता है कि क्या एेसी परिस्थिति में चंद हजार में गुजारा करने वाला कोई साधारण व्यक्ति चुनाव लड़ने की हिम्मत कर सकता है। क्या इसका मतलब यह नहीं कि समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह राजनीति में भी अब अभिजात्य व कुलीन वर्ग का पूरी तरह से दबदबा कायम हो चुका है। कुछ दशक पहले तक कुछ क्षेत्र एेसे थे, जिनमें नैसर्गिक प्रतिभा का ही बोलबाला था। माना यही जाता था कि मेधा , बुद्धि व क्षमता वाले इन क्षेत्रों में तथाकथित बड़े घरों के लोगों की नहीं चल सकती है। बचपन में एेसे कई नेताओं को नजदीक से देखा भी जो बेहद तंगहाली में जीते हुए अपनी – अपनी पार्टी की नुमाइंदगी करते थे। कुलीन व पैसे वालों की भूमिका बस पर्दे के पीछे तक सीमित रहती थी। लेकिन देखते ही देखते एक के बाद एक हर क्षेत्र में पैसे की ताकत सिर चढ़ कर बोलने लगी। जिसके पास पैसा व ताकत उसी के पीछे दुनिया वाली कहावत हर तरफ चरितार्थ होने लगी। ग्राम प्रधानी से लेकर सभासदी के जो चुनाव महज चंद हजार रुपए में लड़े और जीते जाते थे, आज इसके पीछे लोग लाखों रुपयों का निवेश करने को खुशी – खुशी राजी है। सवाल उठता है कि आखिर गांव – मोहल्ला स्तर के इन पदों में एेसा क्या है जो लोग इसके पीछे बावले हुए जा रहे हैं। क्या सचमुच समाज में प्रतिष्ठा की भूख इतनी मारक हुई जा रही है कि लोग इसके पीछे लाखों खर्च करने से गुरेज नहीं कर रहे या मामला कुछ दूसरा है।जानकारों का मानना है कि आज के दौर में एक सभासद को उसके पांच साल के कार्यकाल में साधारणतः डेढ़ करोड़ रुपए तक मिलते हैं। सीधा गणित यह है कि अपने कार्यकाल के दौरान 50 लाख रुपए की विकास राशि जनता पर खर्च कर करीब एक करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ इसमें अर्जित किया जा सकता है। जो किसी दूसरे क्षेत्र में संभव नहीं है। इसके साथ ही पद को मिलने वाले मान – सम्मान का फायदा अलग।

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