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कन्हैया और कम्युनिस्ट…!!
तारकेश कुमार ओझा
समय के समुद्र में कैसे काफी कुछ विलीन होकर खो जाता है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर ममता बन र्जी को दोबारा शपथ लेते देख मै यही सोच रहा था। क्योंकि राज्य की सत्ता से कम्युनिस्ट कभी हट सकते हैं या उन्हें हटाया जा सकता है, ज्यादा नहीं एक दशक पहले तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बचपन में कम्युनिस्ट शासन वाले सोवियत संघ की काफी चर्चा सुनी थी। कहा जाता था कि सोवियत संघ में सब कुछ व्यवस्थित है। वहां कोई गरीब नहीं है और हर हाथ के पास काम है। सोवियत संघ की सुखद कल्पना करते अपने आस – पास जब कम्युनिस्ट नेताओं को देखता था, तो मुझे भारी कौतूहल होता था।मन होता कि पूछ लूं कि … भैया क्या , आप कभी सोवियत संघ गए हो… वहां सब कुछ वैसा ही है ना, जैसे हम सुनते आ रहे हैं… वहां गरीबी और बेरोजगारी का तो नामो निशान भी न होगा। सोवियत संघ और चीन की प्रशंसा सुन कर स्थानीय कामरेड आत्ममुग्ध हो उठते थे। उनकी भाव – भंगिमा यही जतलाती कि जनाब हम अपने देश को भी चीन और सोवियत संघ जैसा बनाना चाहते हैं। जीवन के लंबे दौर में चुनाव दर चुनाव देखता रहा कम्युनिस्टों की जीत पर जीत। लगता मानो सूबे में चुनाव महज एक औपचारिकता है। क्योंकि कम्युनिस्टों को तो जीतना ही है।छात्र राजनीति से लेकर ट्रेड यूनियन तक में लाल झंडे का एकछत्र राज । जहां विरोधियों की उपस्थिति या चर्चा भी हास्यास्पद जैसी लगती। वामपंथी राजनीति के इसी सुनहरे दौर में एक दिग्गज कम्युनिस्ट नेता के पऱधानमंत्री बनने का मौका आया लेकिन अपनी ही पा र्टी की अड़ंगेबाजी के चलते बनते – बनते रह गए। इसे उन्होंने ऐतिहासिक भूल कहा। फिर तो जैसे भूल पर भूल दोहराते जाने की श्रंखला शुरू हो गई। इसे सुधारने की तमाम कोशिशें नाकाम सिद्ध हुई। राजीव गांधी के खिलाफ भारतीय जनता पा र्टी के साथ वी . पी, सिंह को सम र्थन देने की बात हो या भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए कांग्रेस सरकार को बाहर से सम र्थन देने और फिर वापस लेने की। कभी कम्युनिस्ट पूंजीपतियों के कट्टर विरोधी माने जाते थे। दुर्ग में सेंध लगने से पहले एक कम्युनिस्ट नेता और मुख्यमंत्री ने एक बार फिर ऐतिहासिक भूल सुधारने की कोशिश की। उन्हें लगा कि बड़े – बड़े कारखाने खोल कर नौजवानों को अपनी ओर आकृष्ट किया जा सकता है। लेकिन यह दांव तो उलटे कम्युनिस्टों की गले की हड्डी बन गया और उनकी कबऱ खुदनी शुरू हो गई।अब अपने पुराने गढ़ पश्चिम बंगाल में हुई दोबारा दुर्गति की पोस्टमार्टम शुरू हुई तो दबी जुबान से यह चर्चा शुरू हो गई कि कहीं जेएनयू प्रकरण से चर्चित कन्हैया से सहानुभूति और उससे चुनाव प्रचार कराने की घोषणा ही तो एक और ऐतिहासिक भूल साबित नहीं हुई। हालांकि खुद कम्युनिस्ट नेता इस पर चुप हैं। लेकिन ऐसी चर्चा है कि जेएनयू मामले से चर्चित कन्हैया से सहानुभूति रखना और उससे चुनाव पऱचार कराने की घोषणा ने वामपंथियों की मिट्टी पलीद कर दी। पांच साल के भीतर कम्युनिस्ट किले के इस तरह दरकने को ले मैं हैरान हूं। समझ में नहीं आता कि आखिर वामपंथियों की प्राब्लाम क्या है। दरअसल नए दौर में युवा कम्युनिस्ट से जुड़ नहीं रहे हैं। कहते हैं कि कम्युनिस्ट पा र्टियों में जवानी के दिनों में कोई काम शुरू करता है तो दाढ़ी – बाल सफेद होने पर उसे संगठन की सदस्यता मिलती है। जबकि दूसरी पा र्टियों का हाल अलग है। वहां सब कुछ इंस्ट्रेंट है। वहां तो हाईकमान की मर्जी हुई तो किसी गवैये को भी माननीय बना कर सदन में भेज दिया। वाकई कभी अपनी शान और हनक के लिए पहचाने जाने वाले कामरेडों की दुर्गति समय की ताकत को ही साबित करती है।
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